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12 अगस्त 1947: आज़ादी से पहले का वो दिन, जब बंटवारे ने रुलाया!

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लेखक: अज़हर उमरी

12 अगस्त 1947, भारतीय इतिहास का वो दिन, जब आज़ादी की खुशबू हवा में तैर रही थी, लेकिन बंटवारे की त्रासदी दिलों को चीर रही थी। ये वो तारीख थी, जब हिंदुस्तान आज़ादी की दहलीज पर खड़ा था, और हर तरफ उत्साह, बेचैनी और अनिश्चितता का माहौल था। आइए, उस दिन की कहानी को फिर से जीवें।

आज़ादी की आखिरी सीढ़ी

12 अगस्त 1947 तक ये साफ हो चुका था कि ब्रिटिश राज का सूरज अब डूबने वाला है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और दूसरे दल स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में जुटे थे। दिल्ली से लेकर कराची और लाहौर तक, सड़कों पर रौनक थी। तिरंगे झंडे सिल रहे थे, स्वतंत्रता दिवस के भाषणों की स्क्रिप्ट तैयार हो रही थी, और नए प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्तियां चल रही थीं। हर कोई उस ऐतिहासिक पल का इंतज़ार कर रहा था, जब भारत आज़ाद होगा।

बंटवारे की लकीर

इस दिन सर सिरिल रेडक्लिफ़ और उनकी टीम भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा खींचने के आखिरी दौर में थी। पंजाब और बंगाल का बंटवारा लगभग तय हो चुका था, लेकिन इसका नक्शा 17 अगस्त को सामने आना था। फिर भी, दोनों तरफ अफवाहों का बाज़ार गर्म था। लोग डर और अनिश्चितता में जी रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस लकीर के उस पार जाना पड़ सकता है। घर, जमीन और यादें छोड़कर अनजान रास्तों पर चलने की मजबूरी सामने थी।

दंगों की आग

पंजाब, बंगाल और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी। 12 अगस्त को भी कई जगहों से हिंसक घटनाओं की खबरें आईं। ट्रेनें शरणार्थियों से खचाखच भरी थीं। गांव खाली हो रहे थे, और लोग अपने घर-बार छोड़कर अनजान रास्तों पर निकल पड़े थे। एक तरफ आज़ादी का तिरंगा लहराने का सपना था, तो दूसरी तरफ खून और आग का मंज़र। ये वो दौर था, जब खुशी और गम एक साथ सांस ले रहे थे।

रियासतों का भविष्य

आज़ादी से ठीक पहले रियासतों का भारत या पाकिस्तान में विलय का सवाल सबसे पेचीदा था। 12 अगस्त को कई रियासतों के शासकों पर अपने फैसले साफ करने का दबाव था। कुछ ने भारत के साथ जाने का मन बनाया, कुछ पाकिस्तान की तरफ झुके, तो कुछ आज़ाद रहने के ख्वाब देख रहे थे। ये फैसले न सिर्फ रियासतों, बल्कि पूरे देश के भविष्य को प्रभावित करने वाले थे।

गांधी जी का शांति संदेश

इस दिन महात्मा गांधी बंगाल में थे, जहां नोआखाली और कलकत्ता में सांप्रदायिक तनाव चरम पर था। वे उपवास और बातचीत के जरिए लोगों को हिंसा छोड़ने और शांति अपनाने की अपील कर रहे थे। गांधी जी का मानना था कि आज़ादी का जश्न खूनखराबे के साये में नहीं मनना चाहिए। उनका ये शांति मिशन उस दौर की सबसे बड़ी उम्मीद की किरण था।

12 अगस्त 1947, भारतीय इतिहास का वो पल, जब आज़ादी के रंग-बिरंगे सपने हकीकत बनने को थे, लेकिन बंटवारे का दर्द उस रोशनी को धुंधला कर रहा था। ये दिन हमें सिखाता है कि आज़ादी सिर्फ सियासी जीत नहीं, बल्कि इसके पीछे की इंसानी भावनाओं और कुर्बानियों को समझना भी उतना ही ज़रूरी है।

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