मनोज भावुक, पटनाः छठ और फगुआ (होली) गांव-कस्बे-शहर से जोड़ने वाला त्योहार है। बिहार और पूर्वांचल के लोग इस अवसर पर किसी भी सूरत में अपने घर पहुंचना चाहते हैं। मगर सवाल यह है कि इन क्षेत्रों के लोग बाहर यानी दूसरे राज्यों में या देशों में जाने को विवश क्यों हैं? बिहार-पूर्वांचल में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो बाहर मजदूरी करने जाते हैं। एक ऐसा वर्ग भी है, जो इंफॉर्मेशन टेक्नॉलजी जैसे क्षेत्रों में काम करने दूसरे राज्यों में गया है या केंद्र सरकार की नौकरियों के कारण उन्हें राज्य छोड़ना पड़ा है। ऐसे लोग अपेक्षाकृत संपन्न हैं।
सदियों से पलायन
बहरहाल, बिहार-पूर्वांचल से पलायन 19वीं सदी से जारी है, जब देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी। पलायन की इस पीड़ा को लोक-संस्कृति में भी दर्ज किया गया है। भिखारी ठाकुर के नाटक बिदेसिया का नायक पैसा कमाने 'बहरा यानी बाहर' जाता है। पैसा कमाने माने रोजी-रोजगार के लिए और बहरा माने कलकत्ता। उसके पहले अंग्रेजों ने बेहतर जिंदगी का सपना दिखाकर इस क्षेत्र के लोगों को गिरमिटिया बनाया। गन्ने की खेती के लिए वे यहां से लोगों को मॉरिशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो आदि देशों में ले गए। आज इन देशों की जगह पश्चिम एशिया के सऊदी और दुबई जैसी जगहों ने ले ली है। अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप में भी पलायन हो रहा है। बिहार-पूर्वांचल के लोग दिल्ली, मुंबई, गुजरात, पंजाब और दक्षिण भारत में भी जा रहे हैं। माइग्रेशन बुरी चीज नहीं है। मगर मजबूर होकर अपना घर-बार छोड़ना बुरा है।
रेलिया बैरन पिया...
लेकिन पलायन कर चुके इन लोगों को अपनी मिट्टी खींचती है। इसलिए होली और छठ में वे अपने राज्य लौटते हैं। लौटने के लिए ये लोग इस कदर बेचैन होते हैं कि ठसाठस भरी ट्रेनों पर सवार होकर अपने घर लौटते हैं। ट्रेनों में टॉयलेट के दरवाजे के सामने बैठकर-सो कर जाते हैं। बसों में सामान की तरह लदकर अपने घर पहुंचते हैं। कई लोग नहीं भी जा पाते। जो नहीं जा पाते हैं, उनके कान में भी शारदा सिन्हा जी का छठ गीत गूंजता रहता है। शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी के लिए इन्हें आज भी घर, गांव, अपना प्रदेश छोड़ना पड़ रहा है। 'रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे,' यह दर्द, पीड़ा, प्रवास और पलायन का गीत है... ले जाए रेलिया पिया को मगर बैरन बनकर नहीं, सौतन बनकर नहीं, हंसी-खुशी से ले जाय, राजी-खुशी से ले जाय। मगर यहां तो पिया मजबूरी में जा रहे हैं।
नेताओं से अपील
छठ पर पलायन के दर्द को उकेरता हुआ मेरा एक गीत भी है। इसमें छठी मइया से विनती की है कि हे छठी मइया, आपकी कृपा से बाल-बच्चे तो हो गए, लेकिन क्या ये दर-दर भटकने और धक्का खाने के लिए पैदा हुए हैं। गीत की कुछ लाइनें यूं हैं:
कब ले पलायन के दुख लोग झेले?
कब ले सुतल रहिहें एमपी-एमेले?
गांवहूं खुले करखनवा हो, सुनs ए छठी मइया
असहूं ना अइले सजनवा हो, सुनs ए छठी मइया
गांवे में कब मिली रोजी-रोजगार हो?
सरकार और जन-प्रतिनिधियों से इतना ही आग्रह है कि बिहार और पूर्वांचल के किसी भी युवा को मजबूरी में अपना घर-बार छोड़कर न जाना पड़े।
(लेखक भोजपुरी गीतकार हैं)
सदियों से पलायन
बहरहाल, बिहार-पूर्वांचल से पलायन 19वीं सदी से जारी है, जब देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी। पलायन की इस पीड़ा को लोक-संस्कृति में भी दर्ज किया गया है। भिखारी ठाकुर के नाटक बिदेसिया का नायक पैसा कमाने 'बहरा यानी बाहर' जाता है। पैसा कमाने माने रोजी-रोजगार के लिए और बहरा माने कलकत्ता। उसके पहले अंग्रेजों ने बेहतर जिंदगी का सपना दिखाकर इस क्षेत्र के लोगों को गिरमिटिया बनाया। गन्ने की खेती के लिए वे यहां से लोगों को मॉरिशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो आदि देशों में ले गए। आज इन देशों की जगह पश्चिम एशिया के सऊदी और दुबई जैसी जगहों ने ले ली है। अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप में भी पलायन हो रहा है। बिहार-पूर्वांचल के लोग दिल्ली, मुंबई, गुजरात, पंजाब और दक्षिण भारत में भी जा रहे हैं। माइग्रेशन बुरी चीज नहीं है। मगर मजबूर होकर अपना घर-बार छोड़ना बुरा है।
रेलिया बैरन पिया...
लेकिन पलायन कर चुके इन लोगों को अपनी मिट्टी खींचती है। इसलिए होली और छठ में वे अपने राज्य लौटते हैं। लौटने के लिए ये लोग इस कदर बेचैन होते हैं कि ठसाठस भरी ट्रेनों पर सवार होकर अपने घर लौटते हैं। ट्रेनों में टॉयलेट के दरवाजे के सामने बैठकर-सो कर जाते हैं। बसों में सामान की तरह लदकर अपने घर पहुंचते हैं। कई लोग नहीं भी जा पाते। जो नहीं जा पाते हैं, उनके कान में भी शारदा सिन्हा जी का छठ गीत गूंजता रहता है। शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी के लिए इन्हें आज भी घर, गांव, अपना प्रदेश छोड़ना पड़ रहा है। 'रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे,' यह दर्द, पीड़ा, प्रवास और पलायन का गीत है... ले जाए रेलिया पिया को मगर बैरन बनकर नहीं, सौतन बनकर नहीं, हंसी-खुशी से ले जाय, राजी-खुशी से ले जाय। मगर यहां तो पिया मजबूरी में जा रहे हैं।
नेताओं से अपील
छठ पर पलायन के दर्द को उकेरता हुआ मेरा एक गीत भी है। इसमें छठी मइया से विनती की है कि हे छठी मइया, आपकी कृपा से बाल-बच्चे तो हो गए, लेकिन क्या ये दर-दर भटकने और धक्का खाने के लिए पैदा हुए हैं। गीत की कुछ लाइनें यूं हैं:
कब ले पलायन के दुख लोग झेले?
कब ले सुतल रहिहें एमपी-एमेले?
गांवहूं खुले करखनवा हो, सुनs ए छठी मइया
असहूं ना अइले सजनवा हो, सुनs ए छठी मइया
गांवे में कब मिली रोजी-रोजगार हो?
सरकार और जन-प्रतिनिधियों से इतना ही आग्रह है कि बिहार और पूर्वांचल के किसी भी युवा को मजबूरी में अपना घर-बार छोड़कर न जाना पड़े।
(लेखक भोजपुरी गीतकार हैं)
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