लगता है, असम सरकार मान चुकी है कि गायक जुबिन गर्ग की मौत को लेकर विवाद अब काफी हद तक थम गया है। हालांकि यह स्टोरी लिखे जाने तक गर्ग की विसरा रिपोर्ट नहीं आई है, लेकिन संकेत यही हैं कि इसमें कोई चौंकाने वाली बात सामने नहीं आने वाली। यहां तक कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा 6 अक्तूबर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नागरिकों से अपील करते दिखे कि उन्हें अदालतों से पोस्टमार्टम रिपोर्ट की एक प्रति प्राप्त करने का आग्रह करना चाहिए।
हिमंत ने इसके साथ ही कांग्रेस नेता गौरव गोगोई पर हमला भी बोला। राजनीतिक पर्यवेक्षकों की नजर में हालात का यह “सामान्य” होना सरमा के उस भरोसे के तौर पर लिया जाना चाहिए कि वह जनता को आश्वस्त करने में सफल रहे हैं कि गर्ग के निधन के मामले में जांच तेजी से तो हुई ही, यह पर्याप्त और विश्वसनीय थी और यह भी कि 2026 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला।
लेकिन सिर्फ गर्ग की मौत से उठा विवाद या गौरव गोगोई की चुनौती ही नहीं हैं, जिनसे सरमा चुनावों से पहले जूझ रहे हैं। एक और मुद्दा तेजी से जोर पकड़ रहा है, और कहीं ज्यादा बड़ी राजनीतिक और सामाजिक चुनौती के रूप में उनके सामने है।
मोरन, कोच-राजबोंगशी, ताई अहोम, मटक, चुटिया और आदिवासी चाय जनजातियां यानी असम के छह समुदाय सितंबर 2025 की शुरुआत से ही अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा पाने की अपनी लंबे समय से लंबित मांग को लेकर एक बार फिर सड़क पर हैं। वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत ये समूह अब पूरे राज्य में बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं।
उनकी मांग नई नहीं है। दरअसल, 2014 के चुनावों से पहले भाजपा ही नहीं खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का सार्वजनिक वादा किया था, लेकिन 11 साल और कई दौर की बातचीत के बाद भी यह वादा ही है।
असम में फैले इन समुदायों के प्रभाव वाले इलाकों का प्रशासन वर्तमान में स्वायत्त जिला परिषदों (एडीसी) के जरिये होता है। उनकी मांग अनुसूचित जनजाति के दर्जे से भी आगे तक फैली हुई है। उनकी मांगों में संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की बात भी है, जो एडीसी के माध्यम से उनके भूमि अधिकारों, सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की रक्षा करती है।
असम में फिलहाल छठी अनुसूची के दर्जे वाली तीन एडीसी हैं, यानी बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र, दीमा हसाओ स्वायत्त जिला परिषद और कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद।
11 सितंबर को, मोरन समुदाय के ऑल मोरन स्टूडेंट्स यूनियन (एएमएसयू) के नेतृत्व में लगभग 20,000 प्रदर्शनकारियों ने तिनसुकिया में मशाल रैली का आयोजन किया और पुलिस बैरिकेड्स को तोड़ते हुए शहर की मुख्य सड़क से मार्च किया।
12 सितंबर को निचले असम के गोलकगंज इलाके में कोच-राजबोंगशी समुदाय की पुलिस से झड़प भी हुई, जिसके विरोध में 12 घंटे का बंद आयोजित किया गया। मतक समुदाय ने 22 और 26 सितंबर को तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ में रैलियां कीं, जिनमें हर बार 30,000 से 40,000 लोग तक शामिल हुए। सादिया में भी ताई अहोम समाज के 10,000 से ज्यादा लोगों ने रैली निकाली। खास बात यह कि असम की परंपरा के अनुरूप समुदायों के विरोध प्रदर्शनों के ताजा दौर का नेतृत्व भी छात्र संघों के हाथ में है, और अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग असम की राजनीति में एक प्रमुख मुद्दे के रूप में एक बार फिर उभर चुकी है।
असम सरकार ने छह समुदायों के लिए आरक्षण की मात्रा निर्धारित करने, संशोधित ओबीसी आरक्षण का सुझाव देने और मौजूदा एसटी के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसी मांगों के लिए एक मंत्रिसमूह (जीओएम) का पुनर्गठन किया था। एएमएसयू अध्यक्ष पालिंद्र बोरा कहते हैं, “रैली के बाद जब हम मुख्यमंत्री से मिले, उन्होंने बताया कि वह 25 नवंबर को एक रिपोर्ट सदन में पेश करेंगे और अगले दिन केन्द्र को भेज देंगे।”
बोरा ने कहा, “उन्होंने हमसे एक आखिरी मौका देने का आग्रह किया और कहा कि केन्द्र से जवाब न मिलने की स्थिति में हम अपना आंदोलन फिर से शुरू कर सकते हैं।”
यह विरोध प्रदर्शन ऊपरी तौर पर भले ही सरकार विरोधी लगें, कई लोगों का मानना है कि बीजेपी इन्हें सोची-समझी रणनीति के तहत न सिर्फ होने दे रही, बल्कि बढ़ावा भी दे रही है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, “इसका मकसद पहले संकट उत्पन्न करना और फिर चुनाव से ठीक पहले उसे सुलझाकर पार्टी को श्रेय लेने का मौका उपलब्ध कराना है।”
हर रैली पर अनुमानित 8-10 लाख रुपये खर्च होने के कारण फंडिंग को लेकर भी सवाल हैं। वह पूछते हैं, “अगर डिब्रूगढ़ या शिवसागर के स्थानीय व्यापारी योगदान नहीं दे रहे, तो फिर पैसा कहां से आ रहा है?”
पूर्व विधायक, यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट (न्यू) के उपाध्यक्ष और हिल्स स्टेट डिमांड काउंसिल के संयोजक होलीराम तेरांग भी इससे सहमत हैं। वह कहते हैं, “राज्य सरकार की ओर से विरोध प्रदर्शनों का न तो विरोध दिखा न ही उन पर किसी तरह की कार्रवाई होती दिखी। अब चुनाव के करीब कोई समझौता हुआ तो वह भाजपा के पक्ष में ही काम करेगा।”
ओबीसी दर्जे की मांग के पक्ष में असम की मौजूदा जनजातियां भी एकसाथ नहीं हैं। उन्हें नए समूहों को शामिल करने से उनके आरक्षण और सुरक्षा का हिस्सा कम हो जाने की आशंका सता रही है।
बोडो नेता प्रमोद बोरो ने हाल ही में यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया कि कोच-राजबोंगशी को एसटी दर्जे की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि उन्हें ओबीसी का दर्जा पहले से ही हासिल है।
उनके इस बयान के बाद 9 सितंबर को गुवाहाटी में ऑल कोच-राजबोंगशी स्टूडेंट्स यूनियन (एकेआरएसयू) ने बड़ा विरोध प्रदर्शन किया।
राजनीति अपनी जगह, लेकिन छह समुदायों को एसटी का दर्जा देने के नतीजे दीर्घकालिक असर वाले होंगे। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2025 में राज्य की अनुमानित जनसंख्या 3.7 करोड़ है, जिसमें से 12.4 प्रतिशत वर्तमान में आदिवासी के रूप में वर्गीकृत हैं। ओबीसी को जोड़ने के साथ, आदिवासी आबादी लगभग 40 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इससे असम को “आदिवासी राज्य” घोषित करने का रास्ता साफ हो जाता है, और जिसके बाद भूमि अधिकारों, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सांस्कृतिक संरक्षण में महत्वपूर्ण बदलाव जरूरी हो जाते हैं। ऐसा बदलाव असम के गैर-आदिवासी समुदायों को अलग-थलग कर सकता है और उन जातीय दरारों की आग को और भड़का सकता है जो लंबे समय से सतह के नीचे दबी रही हैं।
अफसोस की बात यह है कि इससे ज़ुबीन गर्ग की विरासत भी कमजोर होगी, जो जाति, जनजाति और वर्ग से ऊपर उठकर अखिल असमिया एकता के प्रतीक हैं।
(सौरभ सेन कोलकाता स्थित स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं।)
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