चीन किसी के साथ जंग में नहीं उलझना चाहता, ख़ासकर अमेरिका के साथ. लेकिन वो दुनिया में नंबर वन आर्थिक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है.
इसी वजह से वह पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के समंदरों में अमेरिकी सैन्य दबदबे को ख़त्म करने के लिए शक्ति प्रदर्शन कर रहा है, ताकि वैश्विक व्यापार के लिए महत्वपूर्ण इन समुद्री मार्गों पर उसका दबदबा रहे.
परमाणु और पारंपरिक हथियारों को बनाने के साथ ही चीन, अमेरिका को जताना चाहता है कि वक़्त बदल चुका है और एक महाशक्ति को चुनौती देना बहुत ख़तरनाक है.
एशिया प्रशांत क्षेत्र में लंबे समय से अमेरिका का दबदबा रहा है. दक्षिण कोरिया और जापान में उसके हज़ारों सैनिक तैनात हैं और कई सैन्य बेस भी हैं.
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ट्रंप प्रशासन ने ट्रेड वॉर और एशियाई देशों के साथ गठबंधन पर ज़ोर देकर अपनी पूरी ऊर्जा चीन को काउंटर करने पर केंद्रित कर रखी है.
ऐतिहासिक रूप से शांगरी-ला डायलॉग अमेरिका और चीन के बीच शीर्ष स्तर की प्रतिद्वंद्विता का ऐसा प्लेटफ़ॉर्म रहा है जहां वैश्विक महाशक्तियां इस इलाक़े में सुरक्षा को लेकर अपना-अपना विज़न पेश करती हैं.
इस बैठक की शुरुआत शुक्रवार को सिंगापुर में शुरू हो रही है और एशिया के मुख्य रक्षा सम्मेलन में शिरकत करने के लिए सैन्य प्रतिनिधियों और राजनीतिक नेताओं का यहां आना शुरू हो गया है.
तीन दिन के इस कार्यक्रम में जिन विषयों पर चर्चा होने की संभावना है, उस पर एक नज़र डालते हैं.
दबदबे के लिए संघर्षबीते कुछ वक्त से अमेरिका और चीन के बीच दबदबे को लेकर बढ़ता संघर्ष, एशिया प्रशांत सुरक्षा में बेशक एक बड़़ा मुद्दा है.
वे दिन गए जब चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को पुराने हथियारों और अड़ियल माओवादी सिद्धांतों के लिए जाना जाता था. आज वो एक शक्तिशाली ताक़त है, जिसके पास हाइपरसोनिक मिसाइलें और जे20 जैसे फ़िफ़्थ जेनरेशन के लड़ाकू विमान हैं.
इसकी नेवी के पास दुनिया में सबसे अधिक युद्धपोत हैं और इस मामले में इसने अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है.
हालांकि परमाणु हथियारों के मामले में यह अमेरिका और रूस से बहुत पीछे है लेकिन यह अपने परमाणु हथियारों के ज़खीरे में तेज़ी से इज़ाफ़ा कर रहा है.
चीन के पास ऐसी मिसाइलें हैं जिनकी रेंज 15 हज़ार किलोमीटर तक है और जो अमेरिका को बहुत आसानी से अपनी ज़द में लेने में सक्षम हैं.
टोक्यो के दक्षिण में योकोसुका में अमेरिका के युद्धपोतों का सातवां शक्तिशाली बेड़ा है और यह भी इस क्षेत्र में अब समुद्री दबदबे की गारंटी नहीं दे सकता.
चीन की डोंग फ़ेंग मिसाइलों और विस्फोटक ड्रोनों की फौज, उसके तटों तक पहुंच को अमेरिकी युद्धपोतों के लिए बेहद ख़तरनाक बना देता है.
माना जाता है कि चीन पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र से अमेरिकी सेना को 'पीछे धकेलने' की योजना पर काम कर रहा है.
ताइवान एक उदार, स्वशासित, पश्चिम समर्थक लोकतंत्र है जिसे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ज़रूरत पड़ने पर बलपूर्वक "वापस लेने" की कसम खाई है.
भौगोलिक आकार छोटा होने के बावजूद इसका आर्थिक महत्व है. हमारी तकनीक को ताक़त देने वाले, दुनिया के 90 फ़ीसदी से अधिक हाई-एंड माइक्रोचिप्स और सभी महत्वपूर्ण सेमी-कंडक्टर का उत्पादन करता है.
हाल ही में हुए सर्वे से पता चला है कि ताइवान के ज़्यादातर लोग चीन के अधीन नहीं होना चाहते, लेकिन शी जिनपिंग ने इसे एक प्रमुख नीतिगत लक्ष्य बना लिया है.
ताइवान को अपनी सुरक्षा मज़बूत करने में अमेरिका ने काफ़ी मदद की है, लेकिन ताइवान को लेकर चीन के साथ जंग करने के सवाल पर अमेरिका की "रणनीतिक अस्पष्टता" रही है, या यूं कहें कि चीन को पशोपेश में डाले रहने की नीति रही है.
एक से ज़्यादा मौकों पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन ने संकेत दिया कि ताइवान पर चीनी आक्रमण की स्थिति में अमेरिका सैन्य रूप से उसका जवाब देगा. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के ओवल ऑफ़िस में वापस आने से फिर से अनिश्चितता की स्थिति आ गई है.
इसके अलावा इस क्षेत्र से जुड़ी अमेरिका की एक बड़ी चिंता ये भी है कि चीन पूरे साउथ चाइना सी को तथाकथित 'चाइनीज़ लेक' में बदलने की कोशिश कर रहा है.
रणनीतिक रूप से अहम साउथ चाइना सी में कोरल रीफ़ पर कृतृम रूप से बनाए गए द्वीपों पर चीन की नेवी ने मिलिटरी बेस बना लिया है. इस इलाक़े से हर साल तीन ट्रिलियन डॉलर का वैश्विक व्यापार होता है.
चीन ने दक्षिण चीन सागर में अपने तटरक्षक जहाजों और युद्धपोतों के बेड़े के साथ मिलकर एक विशाल औद्योगिक मछली पकड़ने वाला बेड़ा तैनात किया है. अक्सर अपने देश के समुद्रतट के क़रीब मछली पकड़ने वाले फ़िलीपींस के मछुआरों से इनका टकराव होता है.
चीन अक्सर इस क्षेत्र से गुज़रने वाले विमानों और युद्धपोतों को चुनौती देता है. वो उन्हें चेतावनी देता है कि वे बिना अनुमति के चीनी क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, जबकि बाकी दुनिया इस इलाक़े को अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र मानती है.
उत्तर कोरिया और उसकी महत्वाकांक्षाएं
राष्ट्रपति के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में जब डोनाल्ड ट्रंप से ये पूछा गया कि क्या उत्तर कोरिया कभी ऐसा परमाणु हथियार बना सकेगा, जिसकी ज़द में अमेरिका भी आ सकता है, तो उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा नहीं लगता. लेकिन ऐसा हो चुका है.
इसे अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए की विफलता ही कहा जाएगा कि उत्तर कोरिया ये दिखा चुका है कि न केवल उसके पास परमाणु हथियार हैं बल्कि उसके पास प्रशांत सागर के पार उन्हें लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए ज़रूरी मिसाइलें भी हैं.
ट्रंप के पूर्ववर्ती उत्तर कोरिया की परमाणु महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने में नाकाम रहे. इस बीच माना जा रहा है कि अलग-थलग किए गए और आर्थिक रूप से पिछड़ा माने जाने वाले इस देश के पास कम से कम 20 परमाणु हथियार हैं.
साथ ही उत्तर कोरिया के पास एक विशाल और अच्छी तरह हथियारों से लैस एक सेना भी है.
इसी सेना का कुछ हिस्सा उत्तर कोरिया के सुप्रीम लीडर किम जोंग-उन ने यूक्रेन से लड़ने में रूस की मदद के लिए भेजा है.
बीते दिनों भारत और उसके पड़ोसी पाकिस्तान के बीच हुए सशस्त्र संघर्ष को लेकर अभी भी रक्षा विशेषज्ञ विश्लेषण कर रहे हैं.
भारत की सेना पाकिस्तान की सेना से कहीं बड़ी है, लेकिन इसके बावजूद संघर्ष के दौरान उसके चीन में बने जे10-सी जेट विमानों ने भारतीय वायु सेना के फ्रांस निर्मित रफ़ाल को कथित तौर पर कड़ी चुनौती दी.
कथित तौर पर चीनी पीएल-15 एयर-टू-एयर मिसाइल के इस्तेमाल से कम से कम एक भारतीय लड़ाकू विमान को पाकिस्तान ने गिराया. हालांकि भारतीय मीडिया में इस तरह के दावों को खारिज कर दिया गया है.
इस संघर्ष में पाकिस्तान के लिए चीन की मदद बेहद महत्वपूर्ण रही जिसमें वास्तविक समय में ख़ुफ़िया जानकारी मुहैया कराने के लिए चीन ने अपने सैटलाइट को रीपोज़िशन किया.
माना जा रहा है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही शांगरी-ला डायलॉग्स के दौरान अपना-अपना पक्ष उच्च स्तर पर रखेंगे, वहीं अमेरिका और अन्य मुल्कों की ये कोशिश होगी कि कश्मीर को लेकर दोनों के बीच फिर से टकराव की स्थिति न पैदा हो.
क्या अमेरिका एक विश्वसनीय सहयोगी है?
ये सब ऐसे वक्त हो रहा है जब अमेरिका में नाटकीय रूप से काफी कुछ बदल रहा है.
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अचानक टैरिफ़ लगाने के बाद (जिनमें बाद में उन्होंने बदलाव भी किया) कई इलाक़ों में ये चर्चा शुरू हो गई है कि अमेरिका पर उनकी निर्भरता किस हद तक सही है.
ये सवाल उठने लगा है कि ऐसा सहयोगी जो अपने दोस्तों को आर्थिक नुक़सान पहुंचाने के लिए तैयार है, हमला होने की सूरत में क्या वो वास्तव में अपने दोस्तों की मदद के लिए आगे आएगा?
इस सवाल से पैदा हुए भ्रम का फ़ायदा उठाने में चीन ने कोई कसर नहीं छोड़ी. उनसे वियतनाम जैसे अपने पड़ोसी मुल्कों की तरफ हाथ बढ़ाया, जिसके साथ 1979 में अमेरिका का युद्ध हुआ था. ये कदम ये संकेत देने की कोशिश थी कि चीन अस्थिर दुनिया में स्थिरता और निरंतरता का प्रतीक है.
ट्रंप के पूर्ववर्ती, जो बाइडन के कार्यकाल में अमेरिका ने ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ कई अरब डॉलर वाली एक त्रिपक्षीय साझेदारी, ऑकस पर हस्ताक्षर किए थे.
इसका उद्देश्य न केवल ऑस्ट्रेलिया के लिए अत्याधुनिक पनडुब्बियों का निर्माण करना है, बल्कि तीनों देशों द्वारा तैनात खु़फ़िया और नौसेना बल का इस्तेमाल कर दक्षिण चीन सागर में आने-जाने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना है.
फरवरी में जब राष्ट्रपति ट्रंप से ऑकस समझौते के प्रति अमेरिका की प्रतिबद्धता के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस शब्द को न पहचानते हुए जवाब में सवाल किया, "इसका क्या मतलब है?"
लेकिन सिंगापुर में हो रहे शांगरी-ला डायलॉग्स में अमेरिका के रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ शामिल हो रहे हैं.
उम्मीद की जा रही है कि ऑकस और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के हितों के ख़िलाफ़ काम करने की अमेरिका की योजना को लेकर वो स्पष्ट जानकारी दे सकेंगे.
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